Tuesday, May 15, 2012

भारत में वैज्ञानिक मनोवृत्ति के प्रसार में विधागत (Genre SF) और मुख्य धारा की विज्ञान कथाओं (Mainstream SF) के योगदान का एक तुलनात्मक विवेचन



भारत में वैज्ञानिकमनोवृत्ति के प्रसार में विधागत (Genre SF) और मुख्य धारा की विज्ञान कथाओं (Mainstream SF ) के योगदान का एक तुलनात्मक विवेचन
अरविन्द मिश्र
सचिव, 
भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति
16, काटन मिल कालोनी, चैकाघाट,
वाराणसी-221002
drarvind3@gmail.com
सारांश
आम जनमानस में कथा-कहानियों के जरिये ज्ञान विज्ञान का सहज प्रसार एक पुरानी पद्धति रही है, खासकर बच्चों में कहानी के जरिये जानकारियों का सहज संचार सरलता से होता आया है। स्कूल की कक्षाओं में भी विषय को कहानी के जरिये रोचक तौर पर प्रस्तुत किया जा सकता है- जैसे- अगर मंगल ग्रह के बारे में स्कूली छात्रों को जानकारी देनी है तो आरम्भ में मंगल ग्रह से जुड़ी किसी रोचक विज्ञान कथा के वाचन से उनमें मंगल ग्रह के बारे में पर्याप्त अपेक्षित उत्सुकता उत्पन्न की जा सकती है.... कतिपय पश्चिमी देशों में विज्ञान की कक्षाओं में सांइस फिक्शन का ऐसा इस्तेमाल नवाचारी शिक्षण कार्यक्रमों में किया जा रहा है। मुद्रण माध्यमों में ठीक इसी भाँति विज्ञान कथायें वैज्ञानिक जानकारियों और विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सम्भावित परिणामों से पाठकों को परिचित करा सकती हैं। 
किन्तु भारत में ऐसे छिट-पुट प्रयास हुए हैं, संगठित प्रयासों की रूपरेखा नहीं बनी है। उपरोक्त सन्दर्भ में विधागत (Genre SF) और मुख्य धारा की विज्ञान कथाओं (Mainstream SF) की इस परिप्रेक्ष्य में उपादेयता जाँचने के लिए प्रस्तुत अध्ययन किया गया. विधागत विज्ञान कथाएँ वे विज्ञान कथायें हैं जो वैज्ञानिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं जबकि मुख्यधारा की विज्ञान कथायें जैसा कि स्वयं स्पष्ट है उन मुद्रण/प्रसार माध्यमों में प्रकाशित/प्रसारित होने वाली विज्ञान कथाएं हैं जिनका आम जन पर बड़ा प्रभाव है और वे अधिक लोकप्रिय हैं... विगत सौ वर्षों में भारत में विज्ञान कथा मुख्यतः मुख्य धारा तक ही सीमित रही है... जबकि विगत तीन दशकों से विधागत विज्ञान कथाओं की व्याप्ति बढ़ी है और इसमें कई विज्ञान की पत्रिकाओं मुख्यतः विज्ञान प्रगति (निस्केयर प्रकाशन) और विज्ञान (विज्ञान परिषद्, प्रयाग) का योगदान रहा है... भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति की आमुख पत्रिका ‘विज्ञान कथा’ तो मुख्यतः विधागत विज्ञान कथा के लिए ही जानी जाती है। आलोच्य अध्ययन में इन्हीं विधागत और मुख्यधारा की विज्ञान कथाओं के विगत सौ वर्षीय योगदान पर एक तुलनात्मक दृष्टि डाली गयी है और निष्पत्तियों के साथ विवेचन प्रस्तुत किया गया है। 

प्रस्तावना
विज्ञान कथाओं ने (साइंस फिक़्शन एवं फैन्टेसी समाहित) विज्ञान और प्रौद्योगिकी की अद्यतन प्रगति के संचार के साथ ही मानव जीवन पर इनके सम्भावित प्रभावों का एक पूर्वाकलन प्रस्तुत करने में अतुलनीय योगदान दिया है। आज विज्ञान कथाओं को हम जिस रूप में पहचानते हैं उनमें इनका दो रूप विशेष रूप से मुखर हैं। (1) मुख्य धारा की विज्ञान कथायें तथा (2) विधागत विज्ञान कथायें। इन दोनों स्वरूपों की चर्चा के पहले आइये हम सन्दर्भगत कुछ तकनीकी/परिभाषिक शब्दावलियों से परिचित हो लें।


शब्दावली:
सबसे पहले विधा- विधा का अर्थ एक खास साहित्यिक सृजन कार्य के उस समूह से है जिसमें पहचान के समान लक्ष्मण पाये जाते हैं। जैसे-रहस्य कथाओं में अपराध, प्रेम कथाओं में रूमानियत और विज्ञान कथाओं में परिकल्पित/परिवर्धित प्रौद्योगिकी और सामाजिक व्यवस्था। ये सभी साहित्य की विभिन्न विधायें हैं। इसी तरह कई अन्य जानी पहचानी विधायें है- रहस्य, हास्य विनोद, इतिहास, सस्पेंस, हारर , थ्रिलर आदि। विज्ञान कथायें या तो विधागत पहचान बनाये रखने के लिए इस ‘लेबेल’ को दर्शित करके लिखी जाती है। यानी तब ‘विधागत विज्ञान कथा’ के रूप में सम्बोधित होती हैं या फिर मुख्य धारा के कथाकार बिना इस ‘लेबेल’ के ही पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञान कथाओं को लिखते/प्रकाशित करते हैं जिन्हें सहज ही ‘मुख्यधारा की विज्ञान कथायें कहते हैं। ‘विधागत’ विज्ञान कथा सामान्यतः ऐसी विज्ञान कथाओं की ओर संकेत करती हैं जिनके साथ ऐसे ‘लेबल’ की अनिवार्यतः इंगिति हो या फिर इनका पाठक वर्ग बिना ऐसे ‘लेबेल’ के भी इन्हें विज्ञानकथा के रूप में सहजता से पहचान लें। (क्लूट एण्ड निकोल्स ,1995) जैसे, विज्ञान प्रगति या साइंस रिपोर्टर में विज्ञान कथायें विधागत विज्ञान कथाओं की श्रेणी में आयेगी।

मुख्य धारा का तात्पर्य किसी भी ऐसे साहित्य सृजन से है जिस पर किसी खास विधा या श्रेणी का ठप्पा न लगा हो। यह सामान्यतः यथार्थपरक साहित्य सभी पारम्परिक स्वरूपों-मुख्यतः गद्य साहित्य का परिचायक है। विधागत एवं मुख्य धारा के साहित्य के कई अन्य भेद हैं; यहाँ तक कि किसी पुस्तक की दुकान में भी भिन्न-भिन्न विधाओं के ‘बुक शेल्फ’ का प्रावधान होता है और सामान्य गद्य साहित्य जिनकी कोई विशिष्ट श्रेणी नहीं होती है, मुख्य धारा के साहित्य के रूप में पहचानी जाती हैं और उसके पाठक भी किसी विशेष विधा के प्रति समर्पित नहीं होते। कभी-कभार मुख्यधारा का तात्पर्य व्यावसायिक लेखन की श्रेणी से भी लगाया जाता है। अब जैसे बहुत प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय कृतियाँ को मुख्यधारा के अधीन रखने का प्रचलन है। पं0 जवाहर लाल नेहरू की ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ इसी अर्थ में मुख्यधारा की कृति है। अतः मुख्यधारा का साहित्य गैर विधागत साहित्य है, वह किसी खास पहचान/श्रेणी का मुहताज नहीं हैं .विधागत साहित्य की उपविधायें भी चिन्हित की जा सकती हैं जैसे- विज्ञान कथाओं में ‘हार्ड साइंस फिक़्शन’, साफ्ट साइंस फिक्शन (सोशल साइंस फिक्शन जिसे कल्पना कुलश्रेष्ठ ने ‘सोसाईफाई’ का नाम दिया) इसी तरह विज्ञान कथाओं की कई उपविधायें हैं- जासूसरी विज्ञान कथा, हास्य विनोद विज्ञान कथा जिसमें जीशान हैदर जै़दी का नाम प्रमुख है। इसी तरह साईबर पंक, स्पेस ओपेरा, स्टीम पंक आदि विज्ञान कथाओं की उप विधायें हैं। दरअसल किसी खास विधा या उपविधा के रचनाकार अपनी कृतियों को एक विशिष्ट पहचान देने के लिए जाने जाते हैं और इस कारण ही उनकी विशिष्ट विधा या उप विधा की श्रेणी निर्धारित होती है।

भारतीय परिदृश्य: सिंहावलोकन
भारत में विज्ञान कथा का पदार्पण एक मुख्य धारा के यर्थापरक गद्य साहित्य के रूप में हुआ। पहली हिन्दी विज्ञान कथा, आश्चर्य वृतान्त, अम्बिका दत्त व्यास ने लिखी जो मध्य प्रदेश के एक मुख्यधारा की पत्रिका में 1883-1884 के दौरान धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुई। मुख्य धारा के हिन्दी साहित्य में यह अपने ढंग की एक नई एवं अनूठी रचना थी जिसका प्रभाव आगामी साहित्य सृजन पर पड़ना तय था। इसी समय पश्चिम में, अमेरिका एवं युनाईटेड किंगडम में विज्ञान कथा साहित्य की धूम मच चुकी थी। निश्चय ही भारत में साहित्यकारों ने उस प्रवृत्ति का अनुसरण करने में विलम्ब नहीं किया। अपने समय की मशहूर साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ ने बाबू केशव प्रसाद सिंह की कहानी ‘चन्द्रलोक की यात्रा’ (भाग एक, अंक 6) वर्ष 1900 में छापी। किन्तु आश्चर्य है इसे तत्कालीन भारतीय साहित्यकारों ने साहित्य की श्रेणी में न रखते हुए एक दूसरी कहानी को पहली हिन्दी कहानी का दर्जा दे दिया। सरस्वती ने आगे भी कई विज्ञान कथायें प्रकाशित की (जैसे आश्चर्यजनक घंटी-सत्यदेव परिब्राजक) मगर ये सभी मुख्य धारा की विज्ञान कथायें थी। उस समय विज्ञान कथाओं की कोई विधागत श्रेणी ही नहीं उभरी थी। इसी क्रम में राहुल सांकृत्यायन की 22वीं सदी (1924) भारत की मुख्य धारा की विज्ञान कथाओं के एक ‘मील के पत्थर’ की इंगिति करती है। यद्यपि यह कृति आज के विधागत विज्ञान कथा के ज्यादा निकट है किन्तु तब (और अब भी) इसे मुख्य धारा के साहित्य के रूप में ही श्रेणीबद्ध किया गया है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री, सम्पूर्णानन्द कृत विज्ञान कथा साहित्य भी मुख्य धारा का ही साहित्य माना जाता है।
भारत ही नहीं पश्चिमी दुनिया में भी तत्कालीन विज्ञानकथा साहित्य भी आरम्भिक दिनों में (1900-1940) मुख्यधारा के ही साहित्य के रूप में पहचान बना रहा था। यहाँ तक कि 1930 तक ‘‘साइंस फिक़्शन’’ नाम से भी लोग परिचित नहीं थे। आल्डुअस हक्सले की मशहूर कृति ‘द ब्रेव न्यू वल्र्ड’ (1932) मुख्यधारा-मीडिया के लिए ही लिखी गयी थी। 1937 के बाद जब जान डब्ल्यू कैम्पबेल जूनियर ने ‘ऐस्टाऊडिंग फिक़्शन’ पत्रिका का सम्पादन आरम्भ किया तब ‘विज्ञान कथा’ को एक विधागत पहचान मिलती गयी। एच0जी0 वेल्स एवं जूल्स वर्ने लिखित 1940 के पूर्ववर्ती का विज्ञान कथा साहित्य मुख्य धारा का साहित्य ही था। हाँ, एच0जी0 वेल्स ने इस खास तरह के साहित्य का नामकरण किया था-‘साइंटिफिक रोमांस’’।
भारत में विज्ञान कथा को मुख्यधारा-मीडिया में संगठित तौर पर लाने में यमुना दत्त वैष्णव ‘अशोक’ और नवल बिहारी मिश्र का अप्रतिम योगदान रहा, जिन्होंने 1930 के दशक से इस क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान बनाई। इन्होंने पहली बार विशेष रूप से जोर देकर यह स्पष्ट किया कि जो कहानियाँ वे लिख रहे हैं वे एक खास विधा के रूप में जानी समझी जाय जिसे ‘साइंस फिक़्शन या फैन्टेसी’’ कहा जाता है। नवल बिहारी मिश्र ने जहाँ पश्चिम-अ़मेरिका एवं यूरोपीय विज्ञान कथाओं की तर्ज पर ही अपना सृजन कर्म केन्द्रित किया, यमुना दत्त वैष्णव ‘अशोक’ ने विज्ञान कथाओं के एक सर्वथा मौलिक भारतीय स्वरूप को सामने रखा-उनकी कथाओं में भारतीय ‘लोकेशन, ’भारतीय चेहरे, जाने पहचाने पात्र प्रमुखता से दर्शित होते थे। यह उनकी लेखकीय सिद्धहस्तता ही थी कि अपनी कहानियों में वे एक साथ ‘‘साइंटिफिक रोमांस’’ और ‘भारतीयपन’ का सन्तुलन बनाये रखते थे। इन दोनों प्रसिद्ध विज्ञान कथाकारों के कृतित्व की चर्चा पृथक से की जा चुकी है। (सिंह, 2002)
वर्तमान भारतीय परिदृश्य
यमुना दत्त वैष्णव ‘अशोक’ एवं नवल बिहारी मिश्र के विपुल संयुक्त योगदान के फलस्वरूप विज्ञान कथाओं की चर्चा मुख्य धारा के साहित्य में होने लगी थी और इनके प्रयासों से ही भारत में ‘भारतीय विज्ञान कथा’ का स्वरूप मूर्तिमान हो पाया। 1980 के दशक से भारत में भी विज्ञान कथा की दो धारायें स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होने लगी थीं- मुख्य धारा की विज्ञान कथा और विधागत विज्ञान कथा। देवेन्द्र मेवाड़ी की विज्ञानकथा ‘सभ्यता की खोज’ ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ जैसी तत्कालीन सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित हुई। अरविन्द मिश्र की ‘एक और क्रौन्च वध’ धर्मयुग में तथा जाकिर अली ‘रजनीश’ की ‘एक कहानी’ धर्मयुग तथा ‘निर्णय’ इंडिया टुडे में प्रकाशित हुई। ये भारत की मेनस्ट्रीम विज्ञान कथाओं की प्रतिनिधि कहानियाँ बनी। उस समय ही सुरेश उनियाल की कहानियां ‘सारिका’ जैसी सुप्रसिद्ध कथा पत्रिका में प्रकाशित हो रही थी। आशय यह कि आम जन मानस में वैज्ञानिक चेतना के प्रसार में विज्ञान कथायें मुख्यधारा में भी समादृत स्थान पर चुकी थीं। मगर दुर्भाग्य से इन सभी पत्रिकाओं का प्रकाशन बन्द हो गया। हाँ ‘नवनीत’ अभी भी प्रकाशित हो रही है और उसमें भी विज्ञान कथायें यदा कदा प्रकाशित हो रही हैं ।
भारतीय ‘विधागत’’ विज्ञान कथायें
भले ही मुख्य धारा की पत्रिकाओं का प्रकाशन अवरूद्ध होने से आम जनमानस तक विज्ञान कथाओं की पहुँच भी बाधित हुई किन्तु तभी कितनी ही हिन्दी विज्ञान पत्रिकाओं ने विज्ञान कथा को ‘प्रोमोट’ करना आरम्भ किया- जिनमें विज्ञान प्रगति, विज्ञान, वैज्ञानिक, विज्ञान गरिमा सिन्धु, विज्ञान गंगा के नाम उल्लेखनीय हैं। किन्तु आश्चर्यजनक एवं अज्ञात कारणों से ‘आविष्कार’ पत्रिका ने ‘विज्ञान कथाओं’ से दूरी बनाये रखी। कालान्तर में राधाकान्त अन्थवाल के सम्पादकत्व में ‘विज्ञान कथाओं’ का प्रकाशन इस पत्रिका में शुरू हुआ किन्तु निरन्तरता कायम न रह सकी। विज्ञान प्रगति में जी0पी0 फोण्डके ने नियमित तौर पर विज्ञान कथाओं के प्रकाशन का सलसिला शुरू किया जो दीक्षा विष्ट और तदन्तर प्रदीप कुमार शर्मा के सम्पादकत्व में निरन्तरता बनाये हुए है। सहयोगी प्रकाशन ‘साइंस रिपोर्टर’ ने भी नियमित तौर पर अंग्रेजी में विज्ञान कथाओं के प्रकाशन का क्रम जारी रखा है। ये सभी विज्ञान कथायें यद्यपि कि ‘‘विधागत विज्ञान कथाओं’ के रूप में इंगित होती है मगर भारत के एक बडे क्षेत्र में बच्चों किशोरों में चाव से पढ़ी जाती है और वैज्ञानिक नज़रिये के विकास में इनकी निसन्देह बड़ी भूमिका है। विगत एक दशक से मात्र विज्ञान कथाओं को समर्पित ‘विज्ञान कथा’ निरन्तर भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति द्वारा प्रकाशित हो रही है। 
विवेचन एवं सिफारिशें
भारत में यद्यपि विज्ञान कथा अपने दोनों स्वरूपों-मुख्य धारा के साहित्य एवं विधागत साहित्य के रूप में पहचान स्थापित कर चुकी है किन्तु आज भी साहित्यकारों के एक बड़े तबके की उपेक्षा की शिकार है। मुख्य धारा की साहित्य की पत्रिकाओं में अब इन कहानियों के प्रकाशन की आवृत्ति बहुत कम है- कारण है भारत के साहित्यकारों में सामान्यतः इस विधा की समझ/अभिरूचि नहीं रही है। खास तौर पर हिन्दी साहित्यकारों की अहमन्यता के चलते एक ऐसी विधा जो बडे़ स्तर पर पाठकों में वैज्ञानिक नज़रिए का संचार कर सकती है, उपेक्षित बनी हुई है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का प्रभाव जिस तरह आम जीवन पर बढ़ रहा है, एक ऐसे साहित्य से जो खुद मनुष्य की अस्मिता से जुड़ा है, की उपेक्षा किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। हिन्दी साहित्यकारों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाता है और इसकी शुरूआत विश्वविद्यालयों में भारत सरकार की ओर से हिन्दी एवं अंग्रेजी साहित्य के विभागों में विज्ञान कथा के पाठयक्रमों के आमेलन से भी हो सकती है। शिक्षाविदों को भी इस दिशा में पहल करनी चाहिए। इस सम्बन्ध में विस्तृत संस्तुतियाँ पृथक से अवलोकनीय हैं। (पटैरिया एवं अन्य, 2011)
सन्दर्भ:
1. जान क्लूट एवं पीटर निकोल्स (1993) ,‘द इनसाइक्लोपीडिया आफ ’ साइंस फिक्शन, सेन्ट मार्टिन ग्रिफि़न, न्यूयार्क
2. सिंह, अजय (2002) ,हिन्दी साहित्य में ‘विज्ञान कथा, पी-एच0डी0 शोध प्रबन्ध, गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर।
3. मिश्रा अरविन्द (2008) ,मेनस्ट्रीम एण्ड जानेर एस0एफ0: इमर्जेन्स एण्ड ट्रेन्ड्स इन हिन्दी विस ए विस वेस्टर्न लिटरेचर, शोधपत्र प्रस्तुति, साइंस फिक़्शन कान्फ्रेन्स, औरंगाबाद,http://indiascifiarvind.blogspot.in/2010/03/mainstream-and-genre-sf-emergence-and.html
4. पटैरिया मनोज, अरविन्द मिश्रा, राजीव रंजन उपाध्याय, एस0एम0 गुप्ता (2011), साइंस फिक़्शन इन इण्डिया (पास्ट, प्रेजेन्ट, एण्ड फ्यूचर) आयुष बुक्स, जयपुर।
5. मिश्रा अरविन्द, मनीष मोहन गोरे (2011) ‘Znanstvena Fantaskitana hindiju–pogled kriticara, UBIQ, 9, 2011. 
6. गीता बी एवं अमित सरवाल (2011) इक्सप्लोरिंग साइंस फिक़्शन: टेक्स्ट् एण्ड पीडैगोगी, एसएसएस पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली। 
7. मिश्रा अरविन्द (2011) ‘‘द ओरिजिन्स’’, डाऊन टू अर्थ, साइ-फाई स्पेशल- पैरावल्र्डस, जनवरी 1-15, 2012।